केवल दीन या ज़रूरतमंद?

B. A. Manakala

मैं तो दीन और दरिद्र हूँ; हे परमेश्वर, मेरे लिए फुर्ती कर। तू ही मेरा सहायक, मेरा छुड़ाने वाला है; हे यहोवा, विलम्ब न कर। भजन 70:5

एक व्यक्ति अड़तीस वर्षों से बीमार था और बैतहसदा (Bethesda) नामक एक कुण्ड के पास पड़ा था। जल के हिलते ही जो भी उसमें पहले उतर जाता था, वो चंगा हो जाता था। प्रभु यीशु ने वहाँ से गुज़रते हुए उससे पूछा, "क्या तुम चंगा होना चाहते हो?"

दीन होना एक बात है और ज़रूरतमंद होना एक अलग बात है। निश्चित रूप से वह व्यक्ति कुण्ड के पास इसलिए था क्योंकि वह चंगा होना चाहता था। और मुझे आश्चर्य होता है कि प्रभु यीशु ने उससे वो प्रश्न क्यों पूछा। हो सकता है कि वह कई वर्षों तक वहाँ रहने के बाद निराश और नाउम्मीद हो गया हो।

यदि हम अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट हैं तो हम अब ज़रूरतमंद नहीं हैं। वास्तव में, सांसारिक दृष्टिकोण से हम हमेशा ज़रूरतमंद होते हैं और हमारी इच्छाएँ कभी भी खत्म नहीं होती हैं। परन्तु आत्मिक दृष्टिकोण से हम अक्सर निष्क्रिय हो जाते हैं। परमेश्वर हमसे चाहते हैं कि हम आत्मिक रूप से अधिक प्राप्त करते हुए अधिक देते रहें।

क्या आप केवल दीन हैं या ज़रूरतमंद हैं?

मदद, दीन व्यक्ति की तुलना में ज़रूरतमंद व्यक्ति के अधिक करीब होता है!

प्रार्थना: प्यारे प्रभु जी, मुझे कभी भी आत्मिक रूप से संतुष्ट न होने दीजिए, बल्कि सदा ज़रूरतमंद रहने में मेरी मदद कीजिए। आमीन!

 

(Translated from English to Hindi by S. R. Nagpur)

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